Home रीति रिवाज़ गोवर्धन पूजा (गोदन)

गोवर्धन पूजा (गोदन)

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चित्र व आलेख- विकास वैभव

Govardhan Puja- कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को दिवाली के दूसरे दिन गोदन ( गोवर्धन पूजा ) का पर्व मनाया जाता है। इस दिन आंगन के बीच में गोबर से गोदन बब्बा पसारे जाते हैं। मनुष्याकृति के समान गोदन की आकृति बनाते हैं। आकृति के पेट में गोवर्धन पर्वत बनाते हैं। गाय, बछड़े, चरवाहा, गोपियों आदि का गोबर से ही अंकन किया जाता है। गोदन पर कच्चे भोजन ( कड़ी, चावल,रोटी, चने की दाल, बरा आदि ) का भोग लगाते हैं।

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोककथा प्रचलित है कि एक बार ब्रज क्षेत्र में प्रलय के समान वर्षा होने लगी। तब ब्रजवासियों को मूसलाधार वर्षा से बचाने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उॅंगली पर उठा कर रखा और ब्रजवासियों की रक्षा की। इस घटना के बाद से ही गोवर्धन पूजा की जाने लगी। इस दिन लोग अपने गाय-बैलौं को नहला-धुला कर रंगों से सजाते हैं तथा गले में नई रस्सी डालते हैं। गाय और बैल को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।
गिरधर मोरो बारो गिर न परे।
एक हाथ पर्वत लये ठाड़े, गिरधर मोरो …..
एक हाथ हरि मुकुट संवारे, गिरधर मोरो …..
एक हाथ हरि मुरली बजाबै, गिरधर मोरो …..
एक हाथ हरि कुण्डल संवारे, गिरधर मोरो …..
एक हाथ हरि हार संवारे, गिरधर मोरो …..
एक हाथ हरि करधनी संवारे, गिरधर मोरो …..
इस दिन अहीरों व ग्वालों द्वारा दिवारी लोकनृत्य किया जाता है। इस में नर्तकों की मुख्य क्रिया लाठियों से आपस में लड़ाई का प्रदर्शन करना है। पूरे समय वादक दल जोशीले वाद्य संगीत के साथ इस नृत्य को संगत देते हैं।
राही बिटिया विरहुली, खिरकों खेलन जाये,
घर फटकारे पैजना, मोरी चरत विड़ारे गाये।
खेल लै लरकस खेल लै, आज को खेलो कबै पाये,
तेरो कातिक भागो जाये रे, कातक भागो जाये।
तुलसा बोबई दो जनीं, बैनई बैन आयें,
तुलसा पूजै बामना, बोबई नन्द के लाल।
ऊॅंची गुवारे बाबा नन्द की, चढ़ देखें जसोदा माय रे,
आज बरेदी को भऔ, मोरी भर दुफरें लौटी गाय रे।।

इसी दिन जब अहीर व ग्वाले मौन व्रत धारण कर यह नृत्य करते हैं, तब इसे मौनिया नृत्य कहते हैं। प्रमुख नर्तक हाथ में मोर पंख के मूठ लिये रहता है। शेष नर्तक पीठ पर जाॅघिये में मोर पंख खोसे रहते हैं। मुख्य नर्तक रंग बिरंगी घुटनों तक लटकी पोशाक पहनता हैं। अन्य नर्तक रंग बिरंगे जाॅघिये पहनते हैं। सभी कमर में घुंघुरू बाॅंधे रहते हैं।

कार्तिक शुक्ल द्वितीया को दिवाली के तीसरे दिन भईया दोज का पर्व मनाया जाता है। यह दिवाली के पांच दिवसीय महोत्सव का अंतिम दिन होता है। प्रवेश-द्वार के एक ओर गोबर से गोल आकृतियाॅं बना कर दोज और दूसरी ओर गोबर के ही घर गृहस्थी में लगने वाले चूल्हा चकिया आदि अनेक उपकरण बनाते हैं, जिन्हे दोज कहते है। आलेखन की तरह सुन्दर चौक बनाया जाता है। जिस के अन्दर भाई-बहिन, सगुन चिरैया, साॅंप, बिच्छू ,शिव-पार्वती, सूर्य-चन्द्रमा, दीपक, कलश, सातिया, कमल, चौषठ सीढ़ी आदि का सुन्दर रेखांकन किया जाता है। रुई से बनी ‘आसें’ द्वार पर लटकाई जाती हैं। बहिनें अपने भाईयों के माथे पर तिलक करती है, एवं अपने भाई की खुशहाली की कामना करतीं हैं। इसी दिन यमराज और चित्रगुप्त की भी पूजा होती है।

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