चित्र व आलेख- विकास वैभव
Cultural Heritage in Bundelkhand- भारत एक बहुत बड़ा देश है, यहाॅं हर प्रदेश की वेशभूषा तथा भाषा में बहुत बड़ा अन्तर दिखाई देता हैं। फिर भी एक समानता है जो देश को एक सूत्र में पिरोये हुये है और वह है यहाॅं की सांस्कृतिक एकता एवं तीज त्योहार। तीज त्योहारों की बात जब आती है तो यही कहना पड़ता है कि बुन्देलखण्ड का प्रत्येक दिवस किसी पर्व, त्योहार या उत्सव को समेटे हुये है। नदी, तालाबों, के घाटों पर स्नान, मंन्दिरों में भजन पूजन, शंख तथा घण्ट घड़ियालों की मधुर ध्वनि से ही यहाॅं का प्रत्येक दिन प्रारम्भ होता है। सायंकाल प्रवचन, कीर्तन व संगोष्ठियां यत्र-तत्र देखने को मिलती हैं। वर्ष के बारह महिनों में ऋतुओं के अनुसार इनके लोकगीत तथा लोक नृत्य चलते रहते हैं। वाद्ययन्त्रों के रूप में ये ढोलक, मंजीरा, ढोल, चिकारा, ढफ, चंग, बांसुरी, अलगोजा तथा मृदंग का प्रयोग करते हैं।

वर्ष का प्रारम्भ चैत्र (चैत) शुक्ल प्रतिपदा से होते ही देवी के मन्दिरों में झांझ, मंजीरे और मृदंग ठनक उठते हैं। लोग माॅं दुर्गा की उपासना करते हुए जवारे बोते हैं तथा अछरी गाने लगते हैं-
कैसे के दर्शन पाॅंऊ री, माई तोरी सकरी दुअरियाॅ।
माई के द्वारे इक भूखों पुकारे, देओ भोजन घर जाऊॅं री। माई तेरी सकरी दुअरियाॅ . .
तभी खेतों में फसल पकने लगती है और किसान हंसिया लेकर फसल काटते हुए समवेत स्वर में ‘लावनी’ गाने लगते हैं-
तेरी बखरी में बोले है कागा, सास जू लगन विचारें आवन की।
अरे हाॅं हाॅं री मोरी सखी, जेवना बनाये तुम्हरे जेवन खों,
मोरो जेवना धरौ कुम्हलाये। सास जू लगन विचारें आवन की।
ज्येष्ठ (जेठ) का महीना लगते ही खेत, पशु, पक्षी तथा इन्सान हर कोई जल की आकांक्षा में आकाश की ओर निहारने लगता है। तब स्त्री पुरुष गोटें और राछरे गा-गा कर इन्द्र देव से जल वरसाने की प्रार्थना करते हैं-
बदरिया रानी बरसो विरन के देश।
कहना से उभर आई कारी बदरिया, बदरिया अरे कौना बरस गये मेघ,
पूरब से उभर आई कारी बदरिया, बदरिया अरे पश्चिम बरस गये मेघ। बदरिया रानी बरसो . . .

अषाढ़ लगते ही सावन भादों तक खूब वर्षा होती है। धानी चुनरिया पहनकर धरती जल विभोर हो जाती है। मोर पपीहे नाच उठते हैं, पक्षी चहक उठते हैं, ऐसे में मानव मन भी भाव-विभोर हो उठता है। जगह-जगह आल्हा गाया जाने लगता है-
पैदल के संग पैदल भिड़ गये, अरु असवारन से असवार।
चले सिरोही दल में, कोता खानी चले कटार ।।
नीम और महुआ की डालों पर झूले डालकर बालिकायें और नव वधुयें कजरी तथा मेघ मल्हार गाती हैं-
मेरे राजा किवरियां खोल, रस की बून्दे परी,
पहले आंधी बेहर आई, उठ उठी घटा घनघोर। रस की बून्दे ……
ज्येष्ठ, अषाढ़ एवं श्रावण में महिलायें तथा पुरूष सम्मिलित रूप से शैरा नृत्य करते हैं-
तर हर नाना रे नाना रे।
साउन सुहानी अरे मुरली बाजे, भादों सुहानी मोर,
तिरिया सुहानी जबई लगे, ललुआ झूले पौर के दौर।आश्विन (क्वांर) का महीना लगते ही शरदीय नवदुर्गा पूजन के दिन आ जाते हैं। लोग पुनः जवारे वो कर माॅं दुर्गा की स्थापना कर देवी गीत और अछरियां गाते हैं-मैया के मठ में गोएं घनेरी, पौध बढ़ी बछड़न की। गौरी मैया सुन लईयो …….

इन्ही दिनों बालक बालिकायें मामुलिया, सुआटा और टेसू के गीत गा कर झिंझिया का व्याह रचाते हैं। क्वांर माह में कृष्ण पक्ष 1 से अमावस्या तक युवतियाॅं किसी कंटीले वृक्ष ( बेर या बबूल ) की टहनी को फूलों से सजा कर मामुलिया का द्वार-द्वार प्रदर्शन करती हैं तथा गाती हैं-
मामुलिया मोरी मामुलिया, कहाॅं चली मोरी मामुलिया,
ममुलिया के आये लिवौआ, झमक चली मोरी मामुलिया,
लेआऔ लेआऔ चम्पा चमेली के फूल, सजाऔ मोरी मामुलिया। मामुलिया़़़़़…
क्वांर माह में शुक्ल पक्ष 1 से 9 तक क्वांरी बालिकायें सुआटा खेलती हैं-
उठो उठो सूरजमल भैया भोर भये नारे सुआटा, मलिनी खड़ी है तेरे द्वार,
इन्दलगढ़ की मलिनी नारे सुआटा, हाटई हाट बिकाय।
सूरजमल के घुल्ला छूटे, चन्द्रामल के घुल्ला छूटे,
—– के घुल्ला छूटे, —- के घुल्ला छूटे।।
क्वांर माह में ही शुक्ल पक्ष 8 से पूर्णिमा तक बालक टेसू खेलते हैं-
टेसू आये वीरन वीर, हाथ लिये सोने के तीर।
एक तीर से मार दिया, राजा से व्यवहार किया।।
एवं क्वांरी बालिकायें झिंझिया खेल कर पूर्णिमा को टेसू एवं झिंझिया का व्याह रचातीं हैं-
पूॅंछत पूॅंछत आये हैं नारे सुआटा, कौन बड़ी री तेरी पौर।
पौरन बैठे भईया पहिरिया नारे सुआटा, खिरकिन बैठे कोतवाल।
धीरे-धीरे कार्तिक (कातिक) माह में दीपावली का पंच दिवसीय त्योहार आ जाता है। ग्वाले मोर पंख ले कर दिवारी, मौनिया तथा चाचर नृत्य करने लगते हैं-
ऊॅंची गुवारे बाबा नन्द की, चढ़ देखें जसोदा माय रे,
आज बरेदी को भऔ, मोरी भर दुफरें लौटी गाय रे।।
कार्तिक में नारियां मौन धारण कर सूर्योदय से पूर्व नदी, तालाब या कुओं पर स्नान करके कृष्ण जी की पूजा करती हैं-
उठो मोरे हरजू भये भुनसारे, गऊअन के बॅंध खोलो सकारे।
उठ के कन्हैया प्यारे मुकुट संवारे, सुधक राधिका दोहन ल्याये। उठो मोरे हरजू भये भुनसारे ……

मार्गशीर्ष (अगहन) व पौष (पूस) में राई नृत्य बेड़नियों द्वारा सम्पन्न वर्ग को रिझाने के लिये किया जाता है-
फूले रईयो गुलाब, फूले रईयो गुलाब, नईयां गरज भौंरा खौं।
इस प्रकार से बुन्देलखण्ड के निवासियों का पूरा वर्ष हर्षोल्लास के साथ बीतता है।
बुंदेली संस्कृति की बहुत सुंदर झलक
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