चित्र व आलेख- विकास वैभव
Narwar Fort (Shivpuri, M.P.) – नरवर जिला शिवपुरी (म॰प्र॰) में स्थित हैं, जो झाॅंसी से वाया करेरा 87 किमी॰ तथा वाया डबरा 127 किमी॰ पड़ता हैं। नरवर दुर्ग अत्यन्त प्राचीन है, मूलतः इसे महान राजा नल द्वारा स्थापित बताया जाता है किन्तु नरवर दुर्ग का ज्ञात इतिहास 15 वीं शताब्दी का है। दुर्ग के भीतर प्रवेश करने हेतु क्रमशः चार द्वार पार करने पड़ते हैं। पहला द्वार पिसनारी दरबाजा कहलाता है, यह पूर्णतः हिन्दू शैली में निर्मित है। दूसरा द्वार पीरन पौर, तीसरा गणेश पौर तथा चैथा द्वार हवा पौर के नाम से प्रसिद्ध है। इस द्वार के भीतर प्रवेश करते ही शीतल हवा के झोंके का स्पर्श पाकर तन मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस द्वार का जीर्णोद्धार महाराजा दौलत राव सिन्धिया के गवर्नर अम्बाजी इंगले ने सन् 1800 में करवाया था और इसे ‘गोमुखी’ नाम दिया था।

इस विशाल दुर्ग में स्थित सुन्दर, सुविस्तृत एवं विशाल मकरध्वज ताल की आकृति वर्गाकार है, जिसमें चारों तरफ जल ले जाने हेतु सोपान निर्मित हैं। यह राज परिवार के उपयोग हेतु निर्मित प्रधान जलाशय था, जिस के भीतर आठ कूप एवं नौ बाबड़िया स्थित हैं। इस ताल का निर्माण 12 वीं शताब्दी में राजा मकरध्वज ने करवाया था। दुर्ग में कचहरी महल सबसे सुन्दर एवं विशाल है। इसका निर्माण 16 वीं शताब्दी में कछवाहा राजपूत राजाओं ने कराया था तथा स्न 1925 में ग्वालियर नरेश माधव राव शिन्दे ने इसकी मरम्मत कराई थी। यह महल सम्भवतः अन्तःपुर की रानियों के आमोद प्रमोद का स्थान था। कचहरी महल के निकट ही एक मन्दिर है, जिसमें प्रस्तर पर सिंहवाहिनी देवी एवं हनुमान की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मन्दिर के बरामदे में एक विशाल चकिया (पीसने वाली) स्थित है, जिसकी अद्भुत रचना शैली दर्शनीय है।

नरवर से जुड़ी प्रसिद्ध बेड़नी की किवदन्ती पूरे बुन्देलखण्ड में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि जब राजा नल नरवर पर राज्य करते थे, तो उनके अप्रतिम सौन्दर्य एवं शौर्य से आकर्षित होकर एक बेड़नी (नटनी) जो जादूगरनी होने के साथ साथ अत्यन्त रूपवती भी थी, नल के सामने उपस्थित हुई और उसने विभिन्न प्रकार के जादुई करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न और अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया तथा राजा नल से नरवर दुर्ग में रहने हेतु स्थान देने का अनुरोध किया। इस पर राजा की ओर से प्रस्ताव रखा गया कि यदि बेड़नी किले की एक पहाड़ी के शिखर से दूसरी पहाड़ी के शिखर तक सूत के सहारे जा कर वापस लौट आये तो उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली जायेगी। बेड़नी इस प्रस्ताव पर सहमत हो गई। उसने दोनों शिखरों पर सूत बंधवा दिया और समस्त शस्त्रास्त्रों को जादू मंत्र के बल से बाॅंध दिया, जिससे किसी भी शस्त्रास्त्र से वह सूत काटा नहीं जा सकता था। देखते ही देखते बेड़नी सूत पर नाचती हुई दूसरे शिखर के छोर पर जा पहुॅंची। यह देखकर महारानी दमयन्ती अत्यन्त चिन्तित हुई कि कही ऐसा न हो कि राजा इसे अपनी प्रणयिनी बना लें। रानी ने इस सम्बन्ध में मन्त्रणा कर, जब बेड़नी दूसरे छोर से दुर्ग की ओर वापिस आ रही थी, तो बीच रास्ते में ही सूत को राॅंपी (चर्म काटने का औजार) से कटवा दिया, जिससे बेड़नी बीच में ही गिरकर मर गई।
कहा जाता है कि बेड़नी राॅपी का प्रभाव चर्म काटने से अशुद्ध होने के कारण समाप्त नहीं कर सकी थी। जहाॅं पर गिरकर बेड़नी ने प्राण त्यागा था, उस स्थान पर लोड़ी माता का मन्दिर आज भी विद्यमान है, जिसे जोरकलां के नाम से भी जाना जाता है। यहाॅं अनेक श्रृद्धालु प्रतिदिन आकर पूजन करते हैं तथा स्त्रियाॅं पूड़ी एवं मिष्ठान आदि चढ़ाती हैं। इस प्रसंग में यह दोहा आज भी प्रसिद्ध है-
नरवर चढ़े न बेड़नी, बूँदी छपे न छींट।
गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पके न ईंट।।

निकट के दर्शनीय स्थल- ग्वालियर दुर्ग, श्री पीताम्बरा पीठ (दतिया), दतिया दुर्ग, झाॅंसी दुर्ग आदि।
ऐसी ऐतिहासिक किदवंती पड़ने और सुनने में बहुत ही रोचक होती है कृपया अन्य बुंदेलखंडी किवदंतियों को भी साझा करें सर।💐💐