आलेख- विकास वैभव

Novelist Phanishwar Nath “Renu” – फणीश्वरनाथ “रेणु” का जन्म भारत- नेपाल की सीमा पर बसे बिहार के पूर्णिया जिले (वर्तमान में अररिया) में फाॅरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाॅव में हुआ था। शिलानाथ के पूर्वज बुन्देलखण्ड से आकर धान की खेती करने लगे थे। इन्हीं शीलानाथ मण्डल के घर 04 मार्च 1921 को फणीश्वर नाथ का जन्म हुआ। प्यार से लोग फनिन्दर या फुनेश्वर कहा करते थे, लेकिन दादी कहती थी ‘रिनुआ’। वजह ये थी कि रिनुआ के जन्म के समय परिवार को पहली बार ऋण लेना पड़ा था। आगे जाकर ‘रिनुआ’ से ‘रेनु’ और फिर ‘रेणु’ हो गया। पिता कट्टर आर्य समाजी थे और कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता थे। घर में ही क्रान्तिकारी विचारधारा की नीव पड़ गई। प्राथमिक पढ़ाई के लिये रिनुआ को अररिया स्कूल में दाखिल कराया गया। नाम लिखवाया गया फणीश्वर नाथ मण्डल।
पिता जी के लिये हिन्दी व बंगला की अनेक पत्र-पत्रिकायें आया करती थी, और फणीश्वर आते ही उन्हे चाट लेते। रेणु उस समय अररिया स्कूल में पढ़ा करते थे जब गाॅधी जी को नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार किया गया। सजा काट कर आये तो स्कूल से निकाल दिया गया। रेणु ने आगे की पढ़ाई के लिये सिमरवनी के स्कूल में दाखिला लिया। ये स्कूल पं॰ राम बेनी तिवारी ने शुरू किया था।
रेणु जी बाद में तिवारी जी का स्कूल छोड़कर फारविसगंज के लीग एकेडमिक स्कूल में पढ़ने लगे। इन्ही दिनों उन्होने अपने जीवन की पहली कहानी लिखी ‘‘परीक्षा’’। आगे की पढ़ाई के लिये उन्हे नेपाल के विराट नगर जाना पड़ा। यहाॅं के आदर्श विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा पास की। ये विद्यालय नेपाल के गाॅंधी कृष्ण प्रसाद कोईराला चलाते थे।
1937 में वे बनारस गये और तीन साल वहाॅं रहे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस से उन्होने 1942 में इण्टरमीडियेट किया। साथ ही 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में वो कूॅंद पड़े थे। अंग्रेजी सेना से हथियार, गोला बारूद छीना, रेल की पटरिया उखाड़ी और अंग्रेजो की नाक में दम कर दिया। इसी साल सितम्बर में अंग्रेजो ने रेणु को उनके गाॅव से गिरफ्तार कर लिया। क्रान्तिकारियों का नाम व ठिकाना जानने के लिये, रेणु को गिरा कर उनकी छाती पर कील वाले बूटों से कुचला गया। पिटाई से उनके नाक, मुॅंह और कान से खून बहने लगा, लेकिन रेणु ने मुॅह न खोला। हार कर पुलिस वालों ने दोनों हाथों में रस्सी बाॅधी और 20 किमी तक घोड़ों से बाॅध कर रास्ते भर घसीटते हुये अररिया तक ले गये। मरणासन्न हालत में उन्हे, ढाई साल के लिये जेल भेज दिया गया। वे पूर्णिया, हजारीबाग, भागलपुर की जेलों में कैद रहे।

1943 में वो जेल में ही गंभीर रूप से बीमार पड़े और उन्हे हथकड़ी बेड़ी डाल कर पटना के मेडीकल में ले जाया गया। उनके फेफड़ो। में संक्रमण था। एक नर्स उनकी सेवा में तैनात की गई। लतिका राय चौधरी नामक ये नर्स बाद में उनकी जिन्दगी में भी शामिल हो गई। 1944 में वे जेल से छूटे और सक्रिय लेखन शुरू कर दिया। भारतीय साहित्य को रिपोर्ताज की नई विधा इसी दौरान मिली। 1950 में नेपाल की क्रान्ति में सक्रिय भागीदारी की, जिसके परिणामस्वरूप नेपाल में जनतन्त्र की स्थापना हुई। 09 अगस्त 1954 को ‘‘मैला आंचल’’ छप कर आया। रेणु की पहली पत्नी थी रेखा जो शादी के बाद ही बिछड़ गई, और दूसरी पत्नी थी पद्मा। पद्मा गाॅंव में रहती थी अपने चार बच्चों के साथ।
अब बात उनकी जो रेणु की जिन्दगी में नर्स बनकर आयीं और बाद में उनकी जीवन साथी बन गई। उन दिनों टी॰ बी॰ एक जानलेवा बीमारी थी और मरीज को अछूत की तरह रखा जाता था। 1944 में जब रेणु को यह बीमारी हुई तो वह भारत छोड़ो आन्दोलन में गिरफ्तार थे और भागलपुर सेन्ट्रल जेल से पटना के टी॰ बी॰ अस्पताल में भर्ती कराये गये थे। वहाॅ नर्सिंग में दूसरे साल की छात्रा लतिका राय चौधरी ने उनकी जी-जान से सेवा की। डाक्टरों का कहना था कि रेणु के बचने की उम्मीद कम थी, लेकिन लतिका की सेवा सत्यवान की तरह उन्हें मौत के मुहॅ से खींच लाई। आखिरकार दोनों ने शादी का फैसला किया।
एक टी॰ बी॰ के बीमार से लतिका की शादी का परिवार में जमकर विरोध हुआ। परिवार के लोगों ने कहा विधवा हो जाओगी, लेकिन लतिका ने एक न सुनी। शादी की रस्मे पटना में हुई और विवाह के लिये हजारी बाग लेकर आ गई। मण्डप में रेणु जी पहुॅचे तो खून की उल्टियां हो रहीं थी, उन्हें दीवार के सहारे बैठाया गया। वधु को वरमाला डाली तो दो दोस्तों की मदद से खड़े हो पाये। उन दिनो जब वहु ससुराल में पहुचती थी तो बहु-भात की रस्म होती थी, जिस में दूल्हा दुल्हन का खर्च उठाने का वचन देता था। लेकिन रेणु की शादी में उल्टा हुआ, यानि कि लतिका ने ये रस्म निभाई और दूल्हे का खर्च उठाने का वचन दिया। चूॅकि रेणु के चार बच्चे थे, इसलिये लतिका ने फैसला लिया कि वह कभी माॅ नहीं बनेगी। उन्होंने गर्भाशय निकलवा दिया और रेणु के बच्चे उन्हें हमेशा माॅ का सम्मान देते रहे।

रेणु जी ने पटना में जब ‘‘मैला आंचल’’ लिखा तो छपवाने के लिये पैसे नहीं थे। लतिका ने शादी के गहने बेचे और दुनिया के सामने मैला आंचल छप कर आया। इतना ही नहीं नेपाल के क्रान्ति संग्राम में जब रेणु को जान का खतरा हुआ, तो लतिका ने गाढ़ी कमाई से रेणु के लिये इग्लैण्ड में बनी एक रिवाल्वर खरीदी। ये रिवाल्वर हमेशा रेणु की कमर में बन्धी रहती थी। 13 जनवरी 2011 को लतिका रेणु की यादों को साथ लिये, हमेशा के लिये चली गई।

1960 में मोहन राकेश के सम्पादन में पाॅंच लम्बी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, इस में रेणु जी की नायाब कहानी ‘‘मारे गये गुलफाम’’ छपी। ये वही कहानी है जिस पर ऐसी अद्भुत फिल्म बनी जो आज भी हिन्दुस्तान में आंचलिक परिवेश में बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है, फिल्म का नाम था ‘‘तीसरी कसम’’। फिल्म के संवाद भी खुद रेणु जी ने ही लिखे थे। फिल्म इण्डस्ट्रीज का यह एक अनोखा उदाहरण है कि बिना किसी ट्रेनिंग के फिल्म में जो संवाद रेणु जी ने रचे, उनका आज भी कोई जोड़ नहीं। फिल्म बनाई थी रेणु के लंगोटिया यार, बिहारी दोस्त और जाने माने गीतकार शैलेन्द्र ने । नायक राज कपूर और नायिका वहीदा रहमान की फिल्म के निर्देशक थे बासु भट्टाचार्य। यह फिल्म हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। 1966 में ‘‘तीसरी कसम’’ राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सम्मानित की गई तथा 1967 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।

1970 में इन्हे ‘‘पद्मश्री’’ से सम्मानित किया गया। 1974 में जे॰ पी॰ के आन्दोलन में कूदे और करीब 74 दिनों तक पूर्णिया जेल में बन्द रहे। इनकी गिरफ्तारी का बड़ा विरोध हुआ। आन्दोलन में अपना कदम बढ़ाते ही सबसे पहले ‘‘पद्मश्री’’ तथा अन्य पुरस्कार लौटा दिये। 11 अप्रैल 1977 को यह क्रान्तिदूत हमेशा के लिये खामोशी से विदा हो गया।

One thought on “उपन्यासकार फणीश्वरनाथ “रेणु””

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!