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गढ़कुण्डार दुर्ग

Anukrati Singh by Anukrati Singh
August 6, 2025
in स्थापत्य- मध्य प्रदेश
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 चित्रांकन व आलेख – विकास वैभव

Garhkundar Fort (Niwadi, m.p.)- गढ़कुण्डार दुर्ग झांसी से 50 किमी. दूर निवाड़ी सेंदरी मार्ग पर ग्राम कुण्डार में स्थित है। जुझौती देश की राजधानी गढ़कुण्डार 11 वी.शताब्दी में उत्तर भारत की समृद्धशाली नगरी थी। दिल्ली नरेश पृथ्वी राज चौहान और खेत सिंह खंगार ने सन् 1182 ई. में चंदेलो को पराजित कर यहां अपनी विजय पताका फहराई थी।खेतसिंह ने सन् 1182 ई. में खंगार राज्य जुझौती की राजधानी कुण्डार को बनाकर इस अजेय दुर्ग का निर्माण करवाया था। महाराजा खेतसिंह के पश्चात क्रमशः नंदपाल, छत्रपाल सिंह, खूब सिंह तथा मान सिंह राजा हुए। यह दुर्ग बीहड़ वनों एवं पर्वतीय मार्गो के बीच पहाड़ी पर स्थित है। इस किले की यह विशेषता है कि यह दूर से तो दृष्टिगोचर होगा किंतु पहाड़ी शिलाखण्डो के कारण निकट मार्ग से पूर्ण सुरक्षित है। सामाजिक दृष्टि से यह अपने समय का अजेय व अद्वितीय दुर्ग माना जाता है। उस समय दुश्मन की तोपों के गोले किले को अपना निशाना नहीं बना पाते थे, लेकिन किले से जो तोपें वार करती थी, वह मीलों तक दुश्मन के ठिकानों को नष्ट कर देती थी।

दुर्ग के लिए हस्ति पथ द्वारा प्रवेश द्वार तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। प्रवेश द्वार के बाहर दो चबूतरे है, जो दीवान चबूतरे कहलाते है। प्रवेश द्वार की ऊंचाई 20 फुट है तथा लम्बाई दोनों बुर्जो सहित 80 फुट है। परकोटे की चौड़ाई लगभग 5-6 फुट है। अन्दर प्रवेश करने पर बाएं हाथ की ओर सैनिक चौकी है, जिसे 12 सीड़ियो द्वारा पार किया जाता है, मुख्य द्वार के पास ही तोपखाना है। राजमहल के बाहर एक घुड़साल है जिसके 11 दरवाजे है, यह 18 फुट चौड़ी और 100 फुट लंबी है। महल के दक्षिण-पश्चिम में मोती सागर तालाब है जो 200 फुट लंबा व 50 फुट चौड़ा है। महल के उत्तर व दक्षिण में दस पहला (10 भुजकार) बुर्जे अपनी प्राचीनता की गाथा स्वयं कहती है।

प्रवेश द्वार के बाद आता है सुन्दर, मजबूत तथा भव्य राजमहल। राजमहल की ऊंचाई 150 फुट तथा चौड़ाई 400 फुट है। दुर्ग की मुख्य बुर्ज दक्षिण पूर्व में है, यह अष्टखण्ड महल का एक भाग है, इसका एक खण्ड तल में व सात खण्ड ऊपर है। दुर्ग के उत्तर व दक्षिण पार्श्व में प्रत्येक मंजिल पर बड़ोरियों की श्रृंखलाएं है। गैलरियां लाल पत्थरों की बनी है। किले के स्तंभ चौकोर है, जिन के ऊपर आड़े स्तंभ है। नीचे के खण्ड से एक रास्ता जमीन के अंदर से मोती सागर जाता है, यह गुप्त मार्ग 200 फुट लंबा व 15 फुट चौड़ा सुरंगनुमा है।महल का आंतरिक भाग लगभग वर्गाकार व काफी व्यापक है।

महल का आंगन उत्तर में 148 फुट 4 इंच, पश्चिम में 149 फुट 7.5 इंच, दक्षिण में 148 फुट 6.5 इंच तथा पूर्व में 148 फुट 2 इंच है। पश्चिम के कोने पर एक बड़ा दरवाजा है तथा उत्तर-पश्चिम कोने पर भण्डार गृह व रसोई गृह है। महल की प्रत्येक मंजिल पर शौचालय, मूत्रालय व पानी रखने की व्यवस्था है। महल में राजा रानी का कक्ष, दरवार के लिए दीवाने आम, अतिथिशाला व बंदीगृह भी बने हुए है। महल के अंदर स्थापत्य के कुशल शिल्पियों मोहन, हेमराज, हेमा एवं तुलसी आदि के नाम उपलब्ध हुए है। इस महल की यह विशेषता है कि किसी भी तरफ से चढ़े एक ही स्थान पर पहुंच जाते है। खंगार राजकुमारी ‘केसर दे’ का सती स्तंभ किले के प्रांगण में ही रखा है। दुर्ग की छत से उत्तर दिशा में दिखता है जौहर ताल व जौहर कुआं। उस समय इस कुये से ही दुर्ग के लिए पेयजल की आपूर्ति की जाती थी। यहां दुर्ग से सुरंग के द्वारा जाया जाता था, सुरंग के अवशेष आज भी विद्यमान है। खंगार राजवंश की वीरांगनाओं ने इसी कुआ (जौहर कुण्ड) में अग्नि प्रज्जवलित कर जौहर किया था।

डाबर खास के जंगल में पहाड़ी के ऊपर गजानन माता का मन्दिर है। इस मंदिर का निर्माण महाराजा खेत सिंह ने करवाया था। खंगार राजवंश से संबंधित होने के कारण तुगलक ने इसे ध्वस्त कर दिया था। कुछ वर्ष पूर्व यहां मन्दिर का नए सिरे से निर्माण किया गया। नवरात्रियों में तथा महाराजा खेत सिंह की जयन्ति पर यहां भरी संख्या में लोग पूजा अर्चना करने आते है।

दुर्ग की उत्तर पूर्व दिशा में है विशाल सिन्दूर सागर ताल, इसे नीमा ताल भी कहते है। खंगार काल में यहां एक समृद्धशाली नगरी थी, जहां बाजार में हाथी घोड़े आदि बिकते थे, गांव के नाम ‘हाथी’ एवं ‘नोटा’ बाजार में बिकने के लिऐ लाए जाने वाले हाथी एवं घोड़ों के पड़ाव वाली जगहों से संबंधित है। सन् 1347 ई. में मुहम्मद तुगलक ने कुण्डार के खंगार साम्राज्य पर आक्रमण किया तो इस नगरी को पूर्णतः नष्ट कर दिया।यह दोबारा न बसे इसके लिए तुगलक ने सुरक्षा दीवार को पूर्ण रूप से बन्द करवा दिया। जिससे बरसात का पानी यहाँ एकत्र होता रहा और कालान्तर में एक विशाल तालाब का रूप ले लिया। इस नगर के अवशेष कुंअरपुरा एवं ढीमरपुरा गांवो में भी पाए जाते है जिनकी जमीन अब तालाब में डूब गई है। तालाब के सीढ़ियों के लिए ‘सती स्तंभों’ का प्रयोग किया गया है, ऐसा कोई हिंदू विरोधी शासक ही कर सकता है। ग्रीष्मकाल में जब तालाब का जलस्तर कम हो जाता है तो प्राचीन नगरी के भग्नावशेष स्पष्ट रूप से दिखाई देते है सिन्दूर सागर ताल की पूर्व दिशा में जंगलों से घिरा हुआ ‘मुड़िया महल’ अपूर्ण हालत में है। कुछ इतिहासकार इसे गौंड कालीन मानते है जबकि अन्य इसका निर्माण चंदेल काल मानते है। किसी कारणवश इसका निर्माण कार्य अधूरा छोड़ दिया गया। आज भी मुड़िया महल के चारों तरफ पत्थर आदि निर्माण सामग्री फैली हुई देखी जा सकती है। सिन्दूर सागर ताल की उत्तर दिशा वाली पहाड़ी पर ‘राजा-रानी’ की बैठक आज भी बनी हुई है। परिमर्ददेव के शासन काल में सिया परमार गडकुंडार का शासक था, ‘सिया की राबरी’ को सिया परमार का निवास माना जाता है। वर्तमान में इस इमारत की केवल एक ही दीवार शेष बची है।

निकट के दर्शनीय स्थल- जरायमठ (बरुआसागर), बरुआसागर का किला व टहरौली का किला।

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चित्रकार विकास वैभव सिंह  

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